नाटक-एकाँकी >> कालिदास के नाटक कालिदास के नाटकअशोक कौशिक
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कालिदास के नाटकों का संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कालिदास श्रृंगार के कवि थे। नारी के अधर, स्तन और नितम्बों के वर्णन में
उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती थी। यहाँ तक कि पार्वती के नख-शिख
वर्णन में भी वे तनिक नहीं हिचकिचाए। पार्वती उनकी आराध्य थीं, किन्तु
उनकों भी कालिदास ने नायिका के रूप में चित्रित करने में अपनी श्रृंगार
प्रियता का परिचय दिया, जो कुछ लोगों को कदाचित भाया नहीं। कालिदास अपनी
उपमा के लिए जगविख्यात हैं।
उद्धरण
जर्मन कवि गेटे ने कहा था-
‘‘यदि तुम युवावस्था के फूल प्रौढ़ावस्था के फल और अन्य ऐसी सामग्रियां एक ही स्थान पर खोजना चाहो जिनसे आत्मा प्रभावित होता हो, तृप्त होता हो और शान्ति पाता हो, अर्थात् यदि तुम स्वर्ग और मर्त्यलोक को एक ही स्थान पर देखना चाहते हो तो मेरे मुख से सहसा एक ही नाम निकल पड़ता है-
शकुन्तला
महान् कवि कालिदास की एक अमर रचना !’’
‘‘यदि तुम युवावस्था के फूल प्रौढ़ावस्था के फल और अन्य ऐसी सामग्रियां एक ही स्थान पर खोजना चाहो जिनसे आत्मा प्रभावित होता हो, तृप्त होता हो और शान्ति पाता हो, अर्थात् यदि तुम स्वर्ग और मर्त्यलोक को एक ही स्थान पर देखना चाहते हो तो मेरे मुख से सहसा एक ही नाम निकल पड़ता है-
शकुन्तला
महान् कवि कालिदास की एक अमर रचना !’’
भूमिका
संस्कृत साहित्य में कालिदास का स्थान अप्रितम है। कालिदास सम्राट
विक्रमादित्य के ‘नवरत्नों’ में से एक थे। प्राचीन
कालीन सम्राटों का मन्त्रिमण्डल उनका रत्नमण्डल कहलाता था। उस समय
मन्त्रियों की गणना रत्नों के समान की जाती थी। विक्रमादित्य के नवरत्नों
में कौन अधिक तेजवान, ओजस्वी और वर्चस्वी था। यह कह पाना कठिन है। जिस
प्रकार कालिदास का संस्कृत-साहित्य में अप्रितम स्थान है उसी प्रकार
विक्रमादित्य के मन्त्रिमण्डल में भी उनका स्थान अप्रितम था।
कालिदास की कथा-कृतियों के बारे में संस्कृत- साहित्य में बहुत कुछ कहा गया है। कालिदास की कृतियों से परिचित होने के लिए हम उनका उल्लेख करना परम आवश्यक मानते हैं। संस्कृत के विद्वानों में यह श्लोक प्रसिद्ध है-
कालिदास की कथा-कृतियों के बारे में संस्कृत- साहित्य में बहुत कुछ कहा गया है। कालिदास की कृतियों से परिचित होने के लिए हम उनका उल्लेख करना परम आवश्यक मानते हैं। संस्कृत के विद्वानों में यह श्लोक प्रसिद्ध है-
काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्यं शकुन्तला।
तत्रापि च चतुर्थोऽङ्कस्तत्र श्लोक चतुष्टयम्।।
तत्रापि च चतुर्थोऽङ्कस्तत्र श्लोक चतुष्टयम्।।
इसका अर्थ है-काव्य के जितने भी प्रकार हैं उनमें नाटक विशेष सुन्दर होता
है। नाटकों में भी काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से अभिज्ञान शाकुन्तलम् का
नाम सबसे ऊपर है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् का नाम सबसे ऊपर है। अभिज्ञान
शाकुन्तलम् में भी उसका चतुर्थ अंक और इस अंक में भी चौथा श्लोक तो बहुत
ही रमणीय है।
इसी प्रकार एक अन्य विद्वान ने कालिदास के विषय में कहा है-
इसी प्रकार एक अन्य विद्वान ने कालिदास के विषय में कहा है-
कालिदासगिरां सारं कालिदाससरस्वती।
चतुर्मुखोऽथवा ब्रह्मा विदुर्नान्ये तु मादृश:।।
चतुर्मुखोऽथवा ब्रह्मा विदुर्नान्ये तु मादृश:।।
अर्थात्-कालिदास की वाणी के सार को आज तक केवल तीन व्यक्तियों ने समझा है,
एक तो विधाता ब्रह्मा ने, दूसरे वाग्देवी सरस्वती ने और तीसरे स्वयं
कालिदास ने। मुझ जैसा तो उनको ठीक से समझने में असमर्थ है।
इतना ही नहीं, इससे भी बढ़कर किसी प्राचीन संस्कृत के कवि ने कहा है-
इतना ही नहीं, इससे भी बढ़कर किसी प्राचीन संस्कृत के कवि ने कहा है-
कालिदास कविता नवं वय: माहिषं दधि सशर्करं पय:।
एणमांसमबला सुकोमला संभवन्तु मम जन्म-जन्मनि।।
एणमांसमबला सुकोमला संभवन्तु मम जन्म-जन्मनि।।
इसका अभिप्राय है-यदि प्रत्येक जन्म में मुझे कालिदास की कविता, नई चढ़ती
हुई जवानी, भैंस के दूध का जमा हुआ दही, शक्कर पड़ा हुआ दूध, हरिण का मांस
और कोमल नवेली युवती प्राप्त होती रहें तो इस भवचक्र में जितनी बार भी
जन्म लेना पडे़, मुझे वह स्वीकार है।
भारतीय आत्मा नित्य मोक्ष के लिए छटपटाती है किन्तु कवि कहता है कि कालिदास की कविता आदि यदि उसे मिलते रहे तो उसे मोक्ष की भी कामना नहीं है।
कालिदास के प्रसंग में विक्रमादित्य के नवरत्नों का यदि पाठकों को परिचय दे दिया जाए तो इससे उनके ज्ञान में वृद्धि ही होगी। उनके नवरत्न थे-
भारतीय आत्मा नित्य मोक्ष के लिए छटपटाती है किन्तु कवि कहता है कि कालिदास की कविता आदि यदि उसे मिलते रहे तो उसे मोक्ष की भी कामना नहीं है।
कालिदास के प्रसंग में विक्रमादित्य के नवरत्नों का यदि पाठकों को परिचय दे दिया जाए तो इससे उनके ज्ञान में वृद्धि ही होगी। उनके नवरत्न थे-
धन्वन्तरि
नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते
हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये
बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी
‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है।
क्षपणक
जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है, ये बौद्ध संन्यासी थे।
इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे।
इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।
इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे।
इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।
अमरसिंह
ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक
शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक
ग्रन्थों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि
उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है। संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है
जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और
‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों
ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है।
शंकु
इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ
‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। किन्तु आज वह
भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् माना
गया है।
वेतालभट्ट
विक्रम और वेताल की कहानी जगतप्रसिद्ध है। ‘वेताल
पंचविंशति’ के रचयिता यही थे, किन्तु कहीं भी इनका नाम देखने
सुनने को अब नहीं मिलता। ‘वेताल-पच्चीसी’ से ही यह
सिद्ध होता है कि सम्राट विक्रम के वर्चस्व से वेतालभट्ट कितने प्रभावित
थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है।
घटखर्पर
जो संस्कृत जानते हैं वे समझ सकते हैं कि ‘घटखर्पर’
किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं है।
मान्यता है कि इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको
पराजित कर देगा उनके यहां वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तब से ही इनका
नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त
हो गया।
इनकी रचना का नाम भी ‘घटखर्पर काव्यम्’ ही है। यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ है।
इनका एक अन्य ग्रन्थ ‘नीतिसार’ के नाम से भी प्राप्त होता है।
इनकी रचना का नाम भी ‘घटखर्पर काव्यम्’ ही है। यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ है।
इनका एक अन्य ग्रन्थ ‘नीतिसार’ के नाम से भी प्राप्त होता है।
कालिदास
ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे।
उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप
निरूपित किया है। कालिदास की कथा विचित्र है। कहा जाता है कि उनको देवी
‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी। इसीलिए
इनका नाम ‘कालिदास’ पड़ गया। संस्कृत व्याकरण की
दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था किन्तु अपवाद रूप में कालिदास की
प्रतिभा को देखकर इसमें उसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया गया जिस प्रकार कि
‘विश्वामित्र’ को उसी रूप में रखा गया।
जो हो, कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है। वे न केवल अपने समय के अप्रितम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसा अप्रितम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। शकुन्तला उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है।
जो हो, कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है। वे न केवल अपने समय के अप्रितम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसा अप्रितम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। शकुन्तला उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है।
वराहमिहिर
भारतीय ज्योतिष-शास्त्र इनसे गौरवास्पद हो गया है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों
का प्रणयन किया है। इनमें-‘बृहज्जातक‘,
‘बृहस्पति संहिता’,
‘पंचसिद्धान्ती’ मुख्य हैं। गणक तरंगिणी’,
‘लघु-जातक’, ‘समास संहिता’,
‘विवाह पटल’, ‘योग यात्रा’,
आदि-आदि का भी इनके नाम से उल्लेख पाया जाता है।
वररुचि
कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं।
‘सदुक्तिकर्णामृत’,
‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर
संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं।
इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-
1. पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,
2. ‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि और
3. सूक्ति ग्रन्थों में प्राप्त कवि-वररुचि
यह संक्षेप में विक्रमादित्य के नवरत्नों का परिचय है।
इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-
1. पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,
2. ‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि और
3. सूक्ति ग्रन्थों में प्राप्त कवि-वररुचि
यह संक्षेप में विक्रमादित्य के नवरत्नों का परिचय है।
अब कुछ शकुन्तला के विषय में-
शकुन्तला का जन्म स्वर्गीय अप्सरा मेनका के गर्भ से उन ऋषि विश्वामित्र से
हुआ जिनके तप से इन्द्र तक डर गये थे और उन्होंने ऋषि को लुभाने के लिए और
उनकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका को मृत्युलोक में भेजा। कन्या के
उत्पन्न होते ही मेनका उसको वन में छोड़कर स्वर्ग को लौट गई थी। वन के
पशु-पक्षियों ने कन्या का पोषण किया और कण्व की दृष्टि पड़ने पर वे उसको
अपने आश्रम में ले आए। पक्षियों द्वारा पालित-पोषित होने से कण्व ने उसका
नाम ‘शकुन्तला’ रख दिया था।
शकुन्तला के प्रति महर्षि कण्व का अपनी औरस पुत्री जैसा स्नेह था। वे उसकी प्रसन्नता का सब सामान अपने आश्रम में जुटाते रहे।
‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में इसी शकुन्तला के जीवन को संक्षेप में चित्रित किया गया है। इसमें अनेक मार्मिक प्रसंगों को उल्लेख किया गया है। एक उस समय, जब दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रथम मिलन होता है। दूसरा उस समय, जब कण्व शकुन्तला को अपने आश्रम से पतिगृह के लिए विदा करते हैं। उस समय तो स्वयं ऋषि कहते हैं कि मेरे जैसे ऋषि को अपनी पालिता कन्या में यह मोह है तो जिनकी औरस पुत्रियां पतिगृह के लिए विदा होती हैं उस समय उनकी क्या स्थिति होती होगी।
तीसरा प्रसंग है, शकुन्तला का दुष्यन्त की सभा में उपस्थित होना और दुष्यन्त को उसको पहचानने से इनकार करना। चौथा प्रसंग है उस समय का, जब मछुआरे को प्राप्त दुष्यन्त के नाम वाली अंगूठी उसको दिखाई जाती है। और पांचवां प्रसंग मारीचि महर्षि के आश्रम में दुष्यन्त-शकुन्तला के मिलन का।
अभिज्ञान शाकुन्तलम् की प्रसिद्धि का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व सन् 1789 में सर विलियम जोन्स ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया तो उस अंग्रेजी अनुवाद का जॉर्ज फोरेस्टर ने सन् 1891 में जर्मनी भाषा में अनुवाद प्रकाशित कर दिया। इसी अनुवाद को पढ़कर जर्मनी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि गेटे ने अपने हृदय का जो उद्गार प्रकट किया वह अवर्णनीय है। उन्होंने कहा था:-
‘यदि तुम युवावस्था के फूल और प्रौढ़ावस्था के फल और अन्य ऐसी सामग्रियां एक ही स्थान पर खोजना चाहो जिनसे आत्मा प्रभावित होता हो, तृप्त होता हो और शांति पाता हो अर्थात् यदि तुम स्वर्ग और मर्त्यलोक को एक ही स्थान पर देखना चाहते हो तो मेरे मुख से सहसा एक ही नाम निकलता है-‘शकुन्तला।’
आज के साहित्य जगत में कालिदास और शेक्सपियर की तुलना की जाती है। किन्तु हम समझते हैं कि यह तुलना निरर्थक हैं। दोनों के काल में बड़ा अन्तर है। कालिदास प्राचीन काल के कवि हैं और शेक्सपियर बहुत ही बाद का कवि है। किन्तु प्राचीन और नवीन के विषय में स्वयं कालिदास ने कहा है-
‘पुराना होने से कोई काव्य ग्राह्य नहीं हो सकता और नवीन होने के कारण त्याज्य भी नहीं हो सकता।’
हम शेक्सपियर को नवीन होने के कारण त्याज्य नहीं मान रहे हैं अपितु हम तो यही कहना चाहते हैं कि भले ही अंग्रेजी काव्य जगत में शेक्सपियर का अन्यतम स्थान हो किन्तु कालिदास की रचनाओं से उसकी तुलना करना समीचीन नहीं होगा। वह कालिदास के एक अंश को भी स्पर्श नहीं कर पाता।
हाँ, तुलसीदास से शेक्सपियर की तुलना करना चाहे तो की जा सकती है। शेक्यपियर ने एक स्थान पर कहा है-‘आँखों के जुबान नहीं और जुबान के आँख नहीं। किन्तु इससे पूर्व तुलसीदास इसी भाव को जनकपुरी में राम-जानकी के प्रथम दर्शन के अवसर पर इन शब्दों में रुपायित कर चुके थे-
शकुन्तला के प्रति महर्षि कण्व का अपनी औरस पुत्री जैसा स्नेह था। वे उसकी प्रसन्नता का सब सामान अपने आश्रम में जुटाते रहे।
‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में इसी शकुन्तला के जीवन को संक्षेप में चित्रित किया गया है। इसमें अनेक मार्मिक प्रसंगों को उल्लेख किया गया है। एक उस समय, जब दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रथम मिलन होता है। दूसरा उस समय, जब कण्व शकुन्तला को अपने आश्रम से पतिगृह के लिए विदा करते हैं। उस समय तो स्वयं ऋषि कहते हैं कि मेरे जैसे ऋषि को अपनी पालिता कन्या में यह मोह है तो जिनकी औरस पुत्रियां पतिगृह के लिए विदा होती हैं उस समय उनकी क्या स्थिति होती होगी।
तीसरा प्रसंग है, शकुन्तला का दुष्यन्त की सभा में उपस्थित होना और दुष्यन्त को उसको पहचानने से इनकार करना। चौथा प्रसंग है उस समय का, जब मछुआरे को प्राप्त दुष्यन्त के नाम वाली अंगूठी उसको दिखाई जाती है। और पांचवां प्रसंग मारीचि महर्षि के आश्रम में दुष्यन्त-शकुन्तला के मिलन का।
अभिज्ञान शाकुन्तलम् की प्रसिद्धि का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व सन् 1789 में सर विलियम जोन्स ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया तो उस अंग्रेजी अनुवाद का जॉर्ज फोरेस्टर ने सन् 1891 में जर्मनी भाषा में अनुवाद प्रकाशित कर दिया। इसी अनुवाद को पढ़कर जर्मनी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि गेटे ने अपने हृदय का जो उद्गार प्रकट किया वह अवर्णनीय है। उन्होंने कहा था:-
‘यदि तुम युवावस्था के फूल और प्रौढ़ावस्था के फल और अन्य ऐसी सामग्रियां एक ही स्थान पर खोजना चाहो जिनसे आत्मा प्रभावित होता हो, तृप्त होता हो और शांति पाता हो अर्थात् यदि तुम स्वर्ग और मर्त्यलोक को एक ही स्थान पर देखना चाहते हो तो मेरे मुख से सहसा एक ही नाम निकलता है-‘शकुन्तला।’
आज के साहित्य जगत में कालिदास और शेक्सपियर की तुलना की जाती है। किन्तु हम समझते हैं कि यह तुलना निरर्थक हैं। दोनों के काल में बड़ा अन्तर है। कालिदास प्राचीन काल के कवि हैं और शेक्सपियर बहुत ही बाद का कवि है। किन्तु प्राचीन और नवीन के विषय में स्वयं कालिदास ने कहा है-
‘पुराना होने से कोई काव्य ग्राह्य नहीं हो सकता और नवीन होने के कारण त्याज्य भी नहीं हो सकता।’
हम शेक्सपियर को नवीन होने के कारण त्याज्य नहीं मान रहे हैं अपितु हम तो यही कहना चाहते हैं कि भले ही अंग्रेजी काव्य जगत में शेक्सपियर का अन्यतम स्थान हो किन्तु कालिदास की रचनाओं से उसकी तुलना करना समीचीन नहीं होगा। वह कालिदास के एक अंश को भी स्पर्श नहीं कर पाता।
हाँ, तुलसीदास से शेक्सपियर की तुलना करना चाहे तो की जा सकती है। शेक्यपियर ने एक स्थान पर कहा है-‘आँखों के जुबान नहीं और जुबान के आँख नहीं। किन्तु इससे पूर्व तुलसीदास इसी भाव को जनकपुरी में राम-जानकी के प्रथम दर्शन के अवसर पर इन शब्दों में रुपायित कर चुके थे-
गिरा अनयन नयन बिनु बानी।
कालिदास अपनी उपमाओं के लिए जग विख्यात हैं। संस्कृत में कहा गया
है-कालिदास की उपमा, भारवि का अर्थगौरव, दण्डी का पदलालित्य, किन्तु माघ
में इन तीनों का समावेश पाया जाता है।
कालिदास के विषय में जितना लिखा जाए वह कम होगा। यहां पर उनके प्रसिद्ध नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ विक्रमोर्वशीय’ व ‘मालविकाग्निमित्र’ का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं। इसमें संस्कृत भाषा का सौष्ठव और हिन्दी का लालित्य स्थायी रखने का हमने प्रयत्न किया है।
हमें आशा है कि इसको पढ़ने से पाठक को संस्कृत काव्य के लावण्य और अनुपमेयता का आभास अवश्य होगा।
कालिदास के नाटकों के अंतर्गत तीन नाटक आते हैं-अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्।
कालिदास श्रृंगार के कवि थे। नारी के अधर, स्तन और नितम्बों के वर्णन में उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। यहां तक कि पार्वती के नखसिख वर्णन में भी वे तनिक नहीं हिचके। उन्होंने श्रृंगार वर्णन में आराध्या तक को नहीं छोड़ा था, जो कुछ लोगों को नहीं पसन्द आया। अस्तु !
इनके अन्य दो नाटकों में जैसा कि उनके नाम से ही लक्षित होता है, प्रथम में विक्रम अर्थात् प्रतिष्ठान के राजा पुरुरवा और उर्वशी अप्सरा का प्रेम प्रसंग है, तो दूसरे में विदिशा के राजा अग्निमित्र और विदर्भकुमारी मालविका का प्रणय-प्रसंग है। जैसा कि हम कह चुके हैं कि कालिदास की वर्णन-शैली अनुपम है, अनन्य है, इन दोनों नाटकों में भी वह उसी रूप में विद्यमान है। पाठकों को उसमें रस आयेगा।
प्राचीन संस्कृत साहित्य को सामान्य पाठक तक पहुंचाने के लिए डायमण्ड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि. के संचालक श्री नरेन्द्र जी के प्रयास का ही यह परिणाम है कि उन्होंने इस दिशा में कठिन समझे जाने वाले ‘वेद’ को भी पॉकेट बुक संस्करण में प्रकाशित कर पाठकों तक पहुँचा दिया है। इसके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं। वेद और पुराण भारत की थाती हैं।
न केवल कालिदास के नाटक अपितु उनके काव्य-ग्रन्थ-रघुवंश, कुमार संभव और मेघदूत भी इस श्रृंखला में प्रकाशित किये जा चुके हैं। केवल ऋतुसंहार ही ऐसा है, जिसका प्रकाशन संभव नहीं हो पाया है। क्योंकि वह आकार में इतना नहीं कि उसकी एक पुस्तक बनाई जा सके और न उसको किसी के साथ सम्मिलित ही किया जा सकता है। तदपि अवसर सुलभ होने पर उसको भी पाठकों तक पहुंचाने का यत्न किया जायेगा।
किसी भी कृति अथवा रचना के विषय में, कि वह कैसी बन पड़ी है, अन्तिम निर्णायक पाठक ही होते हैं। पाठकों ने इस दिशा में अब तक जो प्रोत्साहन प्रदान किया है, वह भविष्य में भी प्राप्त होता रहेगा और हम अधिकाधिक संस्कृत साहित्य का रूपान्तरण कर उन तक पहुंचाएँगे। इसी आश्वासन के साथ हम अपना कथन पूर्ण करते हैं।
कालिदास के विषय में जितना लिखा जाए वह कम होगा। यहां पर उनके प्रसिद्ध नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ विक्रमोर्वशीय’ व ‘मालविकाग्निमित्र’ का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं। इसमें संस्कृत भाषा का सौष्ठव और हिन्दी का लालित्य स्थायी रखने का हमने प्रयत्न किया है।
हमें आशा है कि इसको पढ़ने से पाठक को संस्कृत काव्य के लावण्य और अनुपमेयता का आभास अवश्य होगा।
कालिदास के नाटकों के अंतर्गत तीन नाटक आते हैं-अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्।
कालिदास श्रृंगार के कवि थे। नारी के अधर, स्तन और नितम्बों के वर्णन में उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। यहां तक कि पार्वती के नखसिख वर्णन में भी वे तनिक नहीं हिचके। उन्होंने श्रृंगार वर्णन में आराध्या तक को नहीं छोड़ा था, जो कुछ लोगों को नहीं पसन्द आया। अस्तु !
इनके अन्य दो नाटकों में जैसा कि उनके नाम से ही लक्षित होता है, प्रथम में विक्रम अर्थात् प्रतिष्ठान के राजा पुरुरवा और उर्वशी अप्सरा का प्रेम प्रसंग है, तो दूसरे में विदिशा के राजा अग्निमित्र और विदर्भकुमारी मालविका का प्रणय-प्रसंग है। जैसा कि हम कह चुके हैं कि कालिदास की वर्णन-शैली अनुपम है, अनन्य है, इन दोनों नाटकों में भी वह उसी रूप में विद्यमान है। पाठकों को उसमें रस आयेगा।
प्राचीन संस्कृत साहित्य को सामान्य पाठक तक पहुंचाने के लिए डायमण्ड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि. के संचालक श्री नरेन्द्र जी के प्रयास का ही यह परिणाम है कि उन्होंने इस दिशा में कठिन समझे जाने वाले ‘वेद’ को भी पॉकेट बुक संस्करण में प्रकाशित कर पाठकों तक पहुँचा दिया है। इसके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं। वेद और पुराण भारत की थाती हैं।
न केवल कालिदास के नाटक अपितु उनके काव्य-ग्रन्थ-रघुवंश, कुमार संभव और मेघदूत भी इस श्रृंखला में प्रकाशित किये जा चुके हैं। केवल ऋतुसंहार ही ऐसा है, जिसका प्रकाशन संभव नहीं हो पाया है। क्योंकि वह आकार में इतना नहीं कि उसकी एक पुस्तक बनाई जा सके और न उसको किसी के साथ सम्मिलित ही किया जा सकता है। तदपि अवसर सुलभ होने पर उसको भी पाठकों तक पहुंचाने का यत्न किया जायेगा।
किसी भी कृति अथवा रचना के विषय में, कि वह कैसी बन पड़ी है, अन्तिम निर्णायक पाठक ही होते हैं। पाठकों ने इस दिशा में अब तक जो प्रोत्साहन प्रदान किया है, वह भविष्य में भी प्राप्त होता रहेगा और हम अधिकाधिक संस्कृत साहित्य का रूपान्तरण कर उन तक पहुंचाएँगे। इसी आश्वासन के साथ हम अपना कथन पूर्ण करते हैं।
-अशोक कौशिक
विषय प्रवेश
सम्राट विक्रमादित्य अत्यन्त कर्तव्यनिष्ठ होने के साथ-साथ बडे़ ही रसिक
एवं साहित्य प्रेमी विद्वान थे। उनके मन्त्रिमण्डल में कालिदास और भवभूति
जैसे विद्वान थे। प्रजा का अनुरंजन करना राजा का परम धर्म होता था। सम्राट
विक्रमादित्य अपने इस कर्तव्य में कभी चूके नहीं। अनुरंजन के साथ-साथ
प्रजा के मनोरंजन में उनकी प्रवृत्ति थी। एतदर्थ समय-समय पर विभिन्न
प्रकार के आयोजन होते थे। ये आयोजन ऋतु और पर्व के आधार पर किये जाते थे।
ऐसे ही एक आयोजन के अवसर पर कालिदास रचित ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ का मंचन किया गया।
यहां पर कालिदास के मुख से कुछ न कहलाकर केवल नाटक के सूत्रधार के माध्यम से बताया गया है कि आज कालिदास रचित ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ के माध्यम से सभा एवं प्रजा का मनोरंजन किया जाएगा।
नाटक की यह प्राचीन परिपाटी है। नाटककार अपना परिचय नाटक के सूत्रधार के माध्यम से दिलवाता है। इस प्रकार नाटक मंचन आरम्भ होता है।
ऐसे ही एक आयोजन के अवसर पर कालिदास रचित ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ का मंचन किया गया।
यहां पर कालिदास के मुख से कुछ न कहलाकर केवल नाटक के सूत्रधार के माध्यम से बताया गया है कि आज कालिदास रचित ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ के माध्यम से सभा एवं प्रजा का मनोरंजन किया जाएगा।
नाटक की यह प्राचीन परिपाटी है। नाटककार अपना परिचय नाटक के सूत्रधार के माध्यम से दिलवाता है। इस प्रकार नाटक मंचन आरम्भ होता है।
अभिज्ञान शाकुन्तलम्
पात्र-परिचय
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पुरुष-पात्र
सूत्रधार
: नाटक का प्रबन्धकर्ता
दुष्यन्त : हस्तिनापुर का सम्राट, नाटक का नायक
भद्रसेन : सेनापति
माढव्य : विदूषक
सर्वदमन: दुष्यन्त का पुत्र (भरत)
सोमरात : राजा का धर्मगुरु
रैवतक : द्वारपाल
करमक : राजा का सेवक
पार्वतायन : कंचुकी
वैतालिक : राजा के चारण
वैखानस शार्ङरव, शारद्वत, : कण्व ऋषि के शिष्य
हारीत और गौतम
श्यामल : राजा दुष्यन्त का साला, प्रधान राजपुरुष
धीवर : मछुआरा
सूचक और जानुक : दोनों राजपुरुष
मारीच : कश्यप (प्रजापति)
मातलि : इन्द्र का सारथि
दुर्वासा : एक ऋषि
दुष्यन्त : हस्तिनापुर का सम्राट, नाटक का नायक
भद्रसेन : सेनापति
माढव्य : विदूषक
सर्वदमन: दुष्यन्त का पुत्र (भरत)
सोमरात : राजा का धर्मगुरु
रैवतक : द्वारपाल
करमक : राजा का सेवक
पार्वतायन : कंचुकी
वैतालिक : राजा के चारण
वैखानस शार्ङरव, शारद्वत, : कण्व ऋषि के शिष्य
हारीत और गौतम
श्यामल : राजा दुष्यन्त का साला, प्रधान राजपुरुष
धीवर : मछुआरा
सूचक और जानुक : दोनों राजपुरुष
मारीच : कश्यप (प्रजापति)
मातलि : इन्द्र का सारथि
दुर्वासा : एक ऋषि
स्त्री-पात्र
नटी
: सूत्रधार
की पत्नी
शकुन्तला : कण्व की पालित कन्या, नाटक की नायिका
अनसूया, प्रियंवदा : शकुन्तला की सखियां
गौतमी, : एक तपस्विनी
चतुरिका,परभृतिका, मधुकारिका : राजसेविकायें
प्रतिहारी, यवनी : परिचारिकायें
सानुमती : एक अप्सरा
अदिति : कश्यप की पत्नी
शकुन्तला : कण्व की पालित कन्या, नाटक की नायिका
अनसूया, प्रियंवदा : शकुन्तला की सखियां
गौतमी, : एक तपस्विनी
चतुरिका,परभृतिका, मधुकारिका : राजसेविकायें
प्रतिहारी, यवनी : परिचारिकायें
सानुमती : एक अप्सरा
अदिति : कश्यप की पत्नी
।। अभिज्ञान शाकुन्तलम्।।
प्रथम अंक
मंगलाचरण
या सृष्टि: स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री
येद्वेकालंविधत: श्रुतिविषयगुणा: प्राणवन्त: या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहु: सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिन: प्राणवन्त:
प्रत्यक्षाभि: प्रपन्नस्तुनुभिरवतु वरताभिरष्टाभिरीश:।।
येद्वेकालंविधत: श्रुतिविषयगुणा: प्राणवन्त: या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहु: सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिन: प्राणवन्त:
प्रत्यक्षाभि: प्रपन्नस्तुनुभिरवतु वरताभिरष्टाभिरीश:।।
[जिस सृष्टि को ब्रह्मा ने सबसे पहले बनाया, वह अग्नि जो विधि के साथ दी
हुई हवन सामग्री ग्रहण करती है, वह होता जिसे यज्ञ करने का काम मिला है,
वह चन्द्र और सूर्य जो दिन और रात का समय निर्धारित करते हैं, वह आकाश
जिसका गुण शब्द हैं और जो संसार भर में रमा हुआ है, वह पृथ्वी जो सब बीजों
को उत्पन्न करने वाली बताई जाती है, और वह वायु जिसके कारण सब जीव जी रहे
हैं अर्थात् उस सृष्टि, अग्नि, होता, सूर्य, चन्द्र, आकाश, पृथ्वी और वायु
इन आठ प्रत्यक्ष रूपों में जो भगवान शिव सबको दिखाई देते हैं, वे शिव आप
लोगों का कल्याण करें।]
[सूत्रधार का प्रवेश]
सूत्रधार : अब अधिक विलम्ब करना उचित नहीं है। (इधर-उधर देखकर) आर्ये, यदि
आपने श्रृंगार कर लिया हो तो शीघ्र इधर आ जाओ।
[नटी आती है]
नटी : आ गई आर्यपुत्र, आज्ञा कीजिए। आज कौन-सा नाटक खेलना है ?
सूत्रधार : आर्ये, हमारे महाराज विक्रमादित्य तो रस और भाव का चमत्कार दिखाने वाले कलाकारों के आश्रयदाता हैं और आज उनकी सभा में बड़े-बड़े विद्वान पधारे हुए हैं। इसलिए उचित यही होगा कि आज इन्हें कालिदास कवि का नया रचा हुआ अभिज्ञान शाकुन्तल ही दिखाना चाहिए। तुम जाकर सब पात्रों को उनके अनुरूप ठीक से वस्त्राभूषण आदि से सुसज्जति होने को कहो।
सूत्रधार : आर्ये, हमारे महाराज विक्रमादित्य तो रस और भाव का चमत्कार दिखाने वाले कलाकारों के आश्रयदाता हैं और आज उनकी सभा में बड़े-बड़े विद्वान पधारे हुए हैं। इसलिए उचित यही होगा कि आज इन्हें कालिदास कवि का नया रचा हुआ अभिज्ञान शाकुन्तल ही दिखाना चाहिए। तुम जाकर सब पात्रों को उनके अनुरूप ठीक से वस्त्राभूषण आदि से सुसज्जति होने को कहो।
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